
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को हेडगेवार के रूप में मिला पहला मुखिया: क्यों जरूरी था सरसंघचालक का पद?
डॉ हेडगेवार को ही क्यों बनाया गया RSS का सरसंघचालक
स्वयं सेवकों के लिए क्या है इस पद की अहमियत…
क्यों सरसंघचालक का पद मिलने से नाराज थे डॉक्टर हेडगेवार?
हेडगेवार के लिए नया पद सृजित कर बनाया गया सरसंघचालक का पद
हेडगेवार ने ऐसा क्या किया कि उन्हें परंपरा से इतर बिना सूचना के बना दिया गया सरसंघचालक
संघ को चाहिए था एक पूर्णकालिक, प्रभावशाली, दृढ़संकल्पित और सुयोग्य प्रशासनिक मुखिया
हेडगेवार की नियुक्ति के दिन दो अन्य अहम सरकार्यवाह और सरसेनापति के पदों पर नियुक्ति की घोषणा
विजय श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार
डॉ. हेडगेवार को संघ की प्रशासनिक व्यवस्था बनाने का श्रेय जाता है। लेकिन इस शीर्ष पद के लिए हेडगेवार का पहला व्यक्ति बनने की उनकी कहानी बेहद दिलचस्प है। न सवाल, न जवाब और न ही पूर्व सूचना बस सीधे किया गया डॉ. हेडगेवार के नाम का ऐलान और निभाई गई सरसंघचालक प्रणाम की परंपरा…
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के इतिहास में वर्ष 1929 का नागपुर अधिवेशन एक मील का पत्थर साबित हुआ। यहीं पर संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को औपचारिक रूप से संगठन का पहला सरसंघचालक घोषित किया गया। दिलचस्प यह है कि इस पद के बारे में उन्हें न तो पहले बताया गया, न राय ली गई और न ही सहमति ली गई। संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने प्रशासनिक मजबूती के लिए यह फैसला अचानक किया। सवाल यह उठता है कि आखिर डॉ. हेडगेवार ही क्यों इस पद के लिए चुने गए और क्यों उन्होंने इस पर नाराजगी भी जताई?
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संगठनात्मक आवश्यकता का परिणाम
दरअसल संघ की स्थापना विजयदशमी (1925) में तो हो गई थी, लेकिन शुरुआती वर्षों में वह एक विचार और प्रयोग की तरह आगे बढ़ रहा था। शाखाओं का विस्तार हुआ, स्वयंसेवकों का उत्साह बढ़ा, लेकिन किसी औपचारिक नेतृत्व संरचना का अभाव स्पष्ट था। 1929 की बैठक में वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने महसूस किया कि एक अनुशासित संगठन के लिए केवल विचार नहीं, बल्कि एक पूर्णकालिक, प्रभावशाली और प्रशासनिक रूप से सक्षम मुखिया भी जरूरी है। यही वह क्षण था जिसने सरसंघचालक पद की नींव रखी और डॉ. हेडगेवार के लिए नया पद सृजित कर उन्हें पहला सरसंघचालक नियुक्त कर दिया गया।
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नेतृत्व स्वीकारने में झिझक
डॉ. हेडगेवार को अचानक मिले इस सम्मान ने उन्हें अचंभित कर दिया। अप्पाजी जोशी द्वारा स्वयंसेवकों के बीच “सरसंघचालक प्रणाम” की परंपरा निभाते हुए नाम की घोषणा करना, उनके लिए अप्रत्याशित और असहज था। बाद में उन्होंने अपनी नाराजगी भी प्रकट की। यह उनकी विनम्रता और नेतृत्व शैली को दर्शाता है—जहाँ पद की चाह नहीं, बल्कि संगठन की मजबूती ही प्राथमिकता थी। कार्यकर्ताओं का कहना था कि अगर उन्हें पहले बताया जाता, तो वे शायद इस जिम्मेदारी से बचने का प्रयास करते।
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परंपरा की शुरुआत
उस दिन केवल सरसंघचालक ही नहीं, बल्कि सरकार्यवाह और सरसेनापति जैसे पद भी घोषित किए गए। सरकार्यवाह के पद पर बालाजी हुद्दार तो मार्तंडराव जोग को सरसेनापति चुना गया। हालांकि सरकार्यवाह का पद आज भी संघ की व्यवस्था में महत्वपूर्ण है, जबकि सरसेनापति का पद समय के साथ अप्रासंगिक होकर समाप्त हो गया। लेकिन सरसंघचालक और सरकार्यवाह की परंपरा अब भी RSS की संरचना और कार्यप्रणाली का मूलाधार है।
आज के परिप्रेक्ष्य में सरसंघचालक पद का महत्व
आज जब हम डॉ. हेडगेवार की नियुक्ति की इस ऐतिहासिक घटना को देखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि संघ की नींव में केवल वैचारिक स्पष्टता ही नहीं, बल्कि प्रशासनिक दूरदृष्टि भी थी। नेतृत्व का चयन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से नहीं, बल्कि संगठनात्मक आवश्यकता और सामूहिक निर्णय से हुआ था। यही कारण है कि सरसंघचालक का पद आज भी आरएसएस में सर्वोच्च माना जाता है।
बहरहाल डॉ. हेडगेवार की अनिच्छा और उनके कार्यकर्ताओं की दूरदर्शिता ने मिलकर संघ को एक स्थायी और अनुशासित ढांचा दिया। यह प्रसंग हमें याद दिलाता है कि सच्चे नेतृत्व का मूल्य पद प्राप्त करने में नहीं, बल्कि पद को जिम्मेदारी और विनम्रता के साथ निभाने में है।
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