
राजस्थान के सरकारी अस्पतालों में प्रिंसिपल-अधीक्षक की निजी प्रैक्टिस बंद…
राजस्थान के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में बड़ा बदलाव
सरकारी अस्पतालों में प्रिंसिपल और अधीक्षक अब नहीं कर सकेंगे निजी प्रेक्टिस
नए आदेश के तहत यूनिट हेड और HOD पद से भी रहेंगे दूर
प्रिंसिपल की नियुक्ति अब केवल तीन साल के कार्यकाल के लिए होगी
विजय श्रीवास्तव,
राजस्थान सरकार ने मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों में कार्यरत वरिष्ठ डॉक्टरों के कार्य ढांचे में बड़ा बदलाव किया है। अब प्रिंसिपल और अधीक्षक (Superintendent) पदों पर बैठे डॉक्टर निजी प्रैक्टिस (Private Practice) नहीं कर सकेंगे। साथ ही, उन्हें यूनिट हेड या HOD (Head of Department) जैसे पदों की जिम्मेदारी भी नहीं दी जाएगी। चिकित्सा शिक्षा विभाग के इस फैसले को राज्य के मेडिकल प्रशासनिक ढांचे में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने की दिशा में बड़ा कदम माना जा रहा है।
अब नहीं कर सकेंगे निजी प्रैक्टिस: नए नियमों से डॉक्टरों की भूमिका तय
राजस्थान में सरकारी मेडिकल कॉलेजों और हॉस्पिटल्स में पदस्थ प्रिंसिपल और अधीक्षक को अब अपने घर या निजी क्लिनिक पर निजी प्रैक्टिस करने पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। इस बदलाव का उद्देश्य है कि प्रशासनिक पदों पर कार्यरत अधिकारी अपनी पूरी ऊर्जा और समय संस्थान की गुणवत्ता सुधार में लगाएं।
इसके अलावा, अब किसी डॉक्टर को सीधे प्रिंसिपल पद पर नियुक्ति (Principal Appointment) नहीं दी जाएगी। नियुक्ति के लिए संबंधित डॉक्टर के पास कम से कम 3 वर्ष अधीक्षक या अतिरिक्त प्रिंसिपल के रूप में अनुभव और 2 वर्ष HOD के रूप में कार्यकाल होना अनिवार्य होगा।
अब केवल तीन वर्षों के लिए होगी प्रिंसिपल की नियुक्ति
11 नवंबर को जारी मेडिकल एजुकेशन विभाग (Medical Education Department Rajasthan) के नए आदेशों के अनुसार, प्रिंसिपल पद पर नियुक्ति की अवधि अब 3 वर्ष तय की गई है। यदि किसी डॉक्टर का कार्यकाल सफल और संतोषजनक पाया जाता है, तो उसे अतिरिक्त 2 वर्ष के लिए विस्तार प्रशासनिक अनुमति के बाद दिया जा सकेगा।
राज्य सरकार ने प्रिंसिपल चयन के लिए चार सदस्यीय चयन समिति (Selection Committee) गठित की है, जिसमें शामिल होंगे:
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मुख्य सचिव
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एसीएस (कार्मिक विभाग)
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एसीएस (चिकित्सा शिक्षा विभाग)
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कुलपति (RUHS या मारवाड़ मेडिकल कॉलेज, जोधपुर)

अधीक्षक चयन प्रक्रिया में भी हुआ बड़ा बदलाव
अब अधीक्षक (Superintendent) केवल संबंधित कॉलेज या अस्पताल के सीनियर प्रोफेसर स्तर के डॉक्टर ही बन सकेंगे। इससे ग्रुप-2 कैटेगरी के डॉक्टरों को बड़े अस्पतालों में अधीक्षक बनने का अवसर नहीं मिलेगा। अधीक्षक पद पर चयन के लिए गठित समिति की अध्यक्षता एसीएस मेडिकल एजुकेशन करेंगे। इसमें आयुक्त (Medical Education), अतिरिक्त निदेशक (हॉस्पिटल प्रशासन), अतिरिक्त निदेशक (एकेडमिक) और संबंधित कॉलेज के प्रिंसिपल सदस्य होंगे।
अब पुराने अधीक्षक से सीखने की रहेगी अनिवार्यता
नए नियमों के अनुसार, किसी भी नए अधीक्षक (New Superintendent) को 1 माह तक पुराने अधीक्षक के अधीन रहकर कार्य की जानकारी लेना अनिवार्य होगा। इस दौरान सभी फाइलों का अनुमोदन पुराने अधीक्षक के साइन से ही किया जाएगा। अगले 2 माह तक नए अधीक्षक को हर निर्णय से पहले पुराने अधीक्षक से राय लेनी होगी, ताकि प्रशासनिक निरंतरता बनी रहे।
प्रशासनिक कार्यों में अधीक्षक को देना होगा तीन चौथाई समय
जिन डॉक्टरों को अधीक्षक नियुक्त किया जाएगा, उन्हें अपने शैक्षणिक कार्यों के लिए केवल एक चौथाई समय और प्रशासनिक कार्यों के लिए तीन चौथाई समय देना अनिवार्य होगा। इससे अस्पताल के प्रबंधन और मरीज सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार की उम्मीद जताई जा रही है।
इसके क्या संभावित फायदे और नुकसान होंगे प्रदेश में
सकारात्मक परिणाम
अस्पताल प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ेगी
अब प्रिंसिपल और अधीक्षक निजी प्रैक्टिस नहीं कर पाएंगे। इसका मतलब है कि उनका पूरा ध्यान सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों के संचालन पर रहेगा। इससे मरीजों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, समय पर इलाज और संस्थान में अनुशासन मिलेगा।
हितों का टकराव (Conflict of Interest) खत्म होगा
पहले कई डॉक्टर सरकारी जिम्मेदारी के साथ निजी क्लिनिक भी चलाते थे। अब ऐसा संभव नहीं होगा, जिससे सरकारी और निजी क्षेत्र के बीच पारदर्शिता बनी रहेगी और राजकीय संसाधनों का दुरुपयोग रुकेगा।
अनुभव आधारित नेतृत्व को बढ़ावा
नई व्यवस्था के तहत केवल वही डॉक्टर प्रिंसिपल या कंट्रोलर बन सकेगा जिसे अधीक्षक या अतिरिक्त प्रिंसिपल के रूप में 3 साल का अनुभव हो और विभागाध्यक्ष (HOD) के रूप में 2 साल का अनुभव हो। इसका अर्थ है कि अब अनुभवी और प्रशासनिक दृष्टि से सक्षम डॉक्टरों को ही जिम्मेदारी मिलेगी।
चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता
प्रिंसिपल और अधीक्षक के चयन के लिए चार-सदस्यीय उच्च स्तरीय कमेटी बनाई गई है। इससे राजनीतिक हस्तक्षेप और अंतरिक गुटबाजी में कमी आएगी। मेरिट और क्षमता के आधार पर चयन होगा।
तय कार्यकाल से स्थिरता
तीन साल का निश्चित कार्यकाल और आवश्यकता पड़ने पर दो साल का विस्तार प्रशासन में स्थिरता लाएगा। इससे योजनाओं की निरंतरता और दीर्घकालिक विकास संभव होगा।
नकारात्मक परिणाम
वरिष्ठ डॉक्टरों का मनोबल गिर सकता है
जिन डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस से अतिरिक्त आमदनी होती थी, उनके लिए यह फैसला आर्थिक रूप से नुकसानदेह हो सकता है। इससे कुछ अनुभवी डॉक्टर प्रशासनिक पद स्वीकार करने से बच सकते हैं।
प्रशासनिक भार बढ़ेगा
अधीक्षक को अपने तीन-चौथाई समय प्रशासनिक कार्यों में लगाना होगा और केवल एक-चौथाई समय शिक्षण या मरीजों के इलाज में। इससे अकादमिक गुणवत्ता और क्लिनिकल योगदान में कमी आ सकती है।
पुराने और नए अधीक्षक के बीच टकराव
नए आदेश के अनुसार, पहले तीन महीनों तक पुराने अधीक्षक की देखरेख में नए अधीक्षक को काम करना होगा। इस “डुअल सिस्टम” से निर्णय लेने में देरी और प्रशासनिक उलझनें हो सकती हैं।
राजस्थान सरकार का यह निर्णय साफ-सुथरे प्रशासन, बेहतर जवाबदेही और अनुभव आधारित नेतृत्व की ओर एक कदम है। लेकिन अगर इसे डॉक्टरों के हित और प्रोत्साहन के साथ संतुलित नहीं किया गया, तो इसका नकारात्मक असर मेडिकल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर भी पड़ सकता है।
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