अतीत के पन्नों से कुछ यादें… कौन हैं अनिल बोर्डिया?
क्यों आज भी स्मृति में उनकी हर एक बात ताजा सी लगती है?
शिक्षा के मार्फत समाज की तस्वीर बदलने के प्रति आस्थावान तत्कालीन केन्द्रीय शिक्षा सचिव नवाचारों के पुरोधा सर्वप्रिय अनिल बोर्डिया मेरे जीवन के प्रमुख शिल्पी
जब सर्वेश्वर दयाल ने मेरे लिए अनिल बोर्डिया को लिखा सिफारिश पत्र
पत्र को लेकर उनसे मिलने में रहा बड़ा संकोच, लेकिन
वरिष्ठ पत्रकार सुधेंदु पटेल का संस्मरण
जयपुर,(dusrikhabar.com)। यूं तो अक्सर मुझे अपने लोगों का स्मरण रहता है और लोगों को संस्मरण मैं सुनाता रहता हूं लेकिन आज का दिन खास है क्योंकि आज के दिन एक पत्रकार को प्रौढ़ शिक्षा से जोड़ने वाले मार्गदर्शी अनिल बोर्डिया जी को हम एक साथ याद करेंगे। उनकी स्मृतियों को सहेजेंगे और उस पर मंथन होगा। आज का दिन इस लिए भी मेरे इस निम्नलिखित संस्मरण को ताजा करने वाला है क्योंकि आज हम पुराने साथी जो अनिल बोर्डिया से कहीं न कहीं सहमत थे, फिर से इकट्ठा हो रहे हैं श्री अनिल बोर्डिया स्मृति व्याख्यानमाला के लिए।
महात्मा गांधी ने ” रचनात्मक कार्यक्रम” सुझाते हुए “बड़ों की तालीम” के बारे में कहा था कि “मैं शिक्षा का सबसे पहला अर्थ यह करता हूँ कि उन्हें जबानी तौर पर, यानी सीधी बातचीत के जरिये सच्ची राजनीतिक तालीम दी जाय।” यह सुझाव गांधी ने 1945 में दिया था।
और यह आकस्मिक नहीं था कि आजादी के तीन दशकों तक गांधी का सुझाव हमारा राष्ट्रीय संकल्प नहीं बन सका था। इस दिशा में पहली बार “जनता सरकार” ने कदम बढ़ाकर राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम घोषित किया था। जिसके तहत् पांच वर्ष में दस करोड़ लोगों को साक्षर व चेतना संपन्न करने के लक्ष्य का राजनीतिक संकल्प लिया गया था।
अनिल बोर्डिया क्यों बने इस आंदोलन के शिल्पी?
यह भी सुखद संयोग ही रहा था कि इसे क्रियान्वित करने वाले प्रमुख शिल्पी रहे थे शिक्षा के मार्फत समाज की तस्वीर बदलने के प्रति आस्थावान भारत सरकार के तत्कालीन केन्द्रीय शिक्षा सचिव नवाचारों के पुरोधा सर्वप्रिय अनिल बोर्डिया । जीवन की विरल यादों में उतरने के लिए अतीत में जाना ही पड़ता है, और यह भी कि व्यक्ति हो या काल खंड न चाहते हुए भी स्वयं का उल्लेख स्वतः ही अनायास आ ही जाता है।
यह उस दौर की बात है जब तरुणाई की “रौ” में देश में आमूलचूल परिवर्तन का ’ब्लू प्रिन्ट’ मन में संजोए दिवास्वप्न में खोया रहता था। एक ओर समाज परिवर्तन की हूक वहीं दूसरी तरफ पत्रकारिता की बारादरी के चौखट पर प्रवेश की ऊहापोह का खिंचाव भी दिमाग पर तारी थी । हालांकि तब कतई अनुमान नहीं था कि जुड़ने का जरिया जैविक-प्रेम से ही अंततः बनेगा।
दरअसल हुआ यूं कि सातवें दशक के ‘जयप्रकाश आंदोलन’ के दौरान मठी गांधीवादियों के खेमे की सर्वोदयी आंदोलनकारी आशा भार्गव से संपर्क हुआ। जो ‘जैविक – प्रेम’ से होता हुआ कालांतर में जीवन पर्यन्त साथ रहने के संकल्प में अंततः परिणत हो ही गया। प्रेम-प्रपंच (संपूर्ण क्रांति का दौर) के दौरान मै दैनिक सन्मार्ग की चाकरी के साथ-साथ आपातकाल में चर्चित भूमिगत पत्र ‘रणमेरी’ की चारभुजा टीम के सक्रिय सदस्य की भूमिका में था तो आशा नारायण देसाई की पत्रिका ‘ बुनियादी यकीन’ और ” तरुण मन” सहित साहित्य के प्रसार में लगी हुई थी। अंततः आपातकाल की समाप्ति के बाद विवाह बंधन की ‘सजा’ संघर्ष स्वीकार कर ली थी।
एक विराट शून्य क्योंकि भविष्य के बारे में कोई सोच ही नहीं रही थी। हम राजनीति का धंधा क्या करते विधायकी का टिकट वापस किया अपने सूफी संत सरीखे नेता किशन पटनायक के आदेश पर ! अंततः पत्रकारिता की औघड़ – डगर ही एकमात्र सहारा शेष बच रही थी। फिर दर-ब-दर का सिलसिला!
वे उतरती सर्दियों के उजले दिनों की आहट वाले दिन जब कवि- संपादक सर्वेश्वर जी से दिल्ली में मिला तो उन्होने अनिल भाई के नाम चिट्ठी पकड़ा दी थी।
एक पत्रकार की यात्रा प्रौढ़ शिक्षा से कैसे जुड़ी?
आदरणीय बोर्डिया जी,
युवा लेखक पत्रकार सुधेन्दु पटेल को आपके पास भेज रहा हूँ। यह उदयपुर क्षेत्र में प्रौढ़ शिक्षा का काम करना चाहते हैं। इनकी समझ, लगन और मेहनत पर मुझे भरोसा ही नही एक अरसे से एक राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता के नाते इन से मेरा स्नेह रहा है। महत्त्वपूर्ण विषयों पर ‘दिनमान’ में लिखते भी रहे हैं। आपातकाल में जेल भी काट आये हैं। इन जैसे युवक इस क्षेत्र में उपयोगी काम कर सकते हैं ऐसा मेरा विश्वास है। यह संक्षिप्त परिचय है, थोड़ी बातचीत कर आप ज्यादा समझ जायेंगे। यदि इन्हें इस काम में लगा दें तो इनका भला तो होगा ही इस काम को भी एक सही आदमी मिल जाएगा।
आशा है, आप स्वस्थ होंगे।
सादर आपका
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
मैं संकोचवश नहीं मिला अनिल बोर्डिया से, लेकिन नियति रास्ता खुद बनाती है
मैं संकोचवश नहीं मिला लेकिन नैसर्गिक अवसर अनायास आ टपका। यूं हुआ कि राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति के राज्य संदर्भ केन्द्र के निदेशक रमेश थानवी से औचक भेंट का संयोग बना । उन्हें मैं समाजवादी मजदूर नेता जार्ज फर्नांडीज के साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ से जानता था क्योंकि में उसमें यदाकदा छपता भी रहता था, वे भी मेरे नाम से वाकिफ थे। सो मेरी मौजूदा स्थिति को समझते हुए रमेश जी सपारिश्रमिक कुछ काम सौंपने लगे।
संयोगात कि सालाना सम्मेलन का अवसर आ पहुंचा। राज्य में सक्रिय प्रौढ़ शिक्षण समितियों का यह सालाना समागम एक रचनात्मक उत्सव-सा हुआ करता था जिसमें सामान्य कार्यकर्ताओं से लगायत जिला शिक्षा अधिकारियों तक की सक्रिय भागीदारी अनिवार्य हुआ करती थी। उस अवसर पर अनौपचारिका के साथ- साथ सम्मेलन के एजेण्डा विषयक पाठ्य सामग्री का प्रकाशन भी हुआ करता था।उदारमना रमेश जी ने मुझ से भी लिखवाया। मैंने “प्रौढ़ शिक्षा से मुक्ति की ओर : ‘जनक’ कोन बनेगा?” आलेख लिखा। उस सम्मेलन में मंत्री से लगायत केन्द्र-राज्य के शैक्षिक अफसरों का जमघट हुआ करता था।
जाहिर है इस अभिनव आयोजन की मुख्य धुरी अनिल बोर्डिया ही हुआ करते थे। ऐसे में अपने उद्बोधन में मेरे लेख को प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम की मूल मंशा बताते हुए उसे अनिवार्यतः पढ़े जाने की पैरवी की। मेरा ग्राफ इतना बढ़ गया कि प्रायः सभी उसे पढ़कर और बिना पढ़े भी ठकुरसुहाती में मुझे आ-आकर बधाई देने लगे थे। मै छा गया था गुरु ! मै स्वयं भी चकित था ऐसा क्या लिख दिया कि अनिल भाई प्रभावित हुए। सो अपने लेख का पुनरावलोकन किया।
“प्रौढ़ शिक्षा महज नारा नहीं, बल्कि मुक्ति का औजार है”
“प्रौढ़ शिक्षा बुनियादी बदलाव का एक कारगर औजार है। महज भरमाने वाला नारा नहीं है।…. इस महत्वाकाँक्षी आंदोलन के जो वाहक हैं, उनकी जिम्मेदारी माँ की-सी हैं। जब हम किसी आदमी को अशिक्षा के अंधे कुएं से निकालते हैं उसे रोशनी का रास्ता बतलाते हैं तब हम एक नया इन्सान पैदा कर रहे होते हैं। उस नये इन्सान को उसके हक की जानकारी देना, उसके बाजुओं की असीम ताकत का सही उपयोग बतलाना, उसके मन में जानकारी की भूख पैदा करना, तपस्वी मन से ही संभव है। प्रौढ़ शिक्षा का काम तपस्या है। आदमी को उसके आदमीपन से साक्षात्कार करवाने का काम ‘जनक’ बनकर ही संभव है।
वंचितों में सही चेतना का विकास जानकारी के एकाधिकारवाद को तहस-नहस करके ही संभव है। शोषण के खिलाफ जूझने में साक्षरता की ताकत से बल मिलेगा। इस बात को चौपालों तक पहुंचाना होगा, खेतों की मेड़ों तक यह बात पहुंचानी होगी कि अपनी मुक्ति के लिए अज्ञान और अशिक्षा के खिलाफ उठो । समय की पुकार है। नया सवेरा लाने के लिए जुट जाओ।”
अनिल भाई लोकतांत्रिक पद्धति को प्यार करते थे इसीलिए नेल्सन मंडेला सरीखे व्यक्ति से लेकर गांव के अमराराम तक से सहज भाव से मिल सकते थे। वे अंतःकरण से सबको साथ लेकर चलने की इच्छा रखते रहे हैं। वे सतत जिज्ञासु बने रहने को तत्पर रहते थे। वे हर भूमिका में अपवादों में भी अपवाद रहे थे। उनमें ज्ञान का दंभ जरा भी नहीं था। मुझ पर वे बराबर कृपालु रहे थे। एक बड़े फासले के बावजूद ढेरों स्मृतियाँ है। जोधपुर में हुए सम्मेलन के बाद वे समिति से मुझे जोड़ना भी चाहते थे। उन्होंने रमेश जी को उलाहना भी दिया था लेकिन जब उन्हें पता चला था कि मैंने कहीं भी नौकरी के लिए आवेदन न करने का संकल्प लिया हुआ है। उन्होंने पल भर में रमेश जी से कहा था कि यदि हम उसे आमंत्रित करें तो… और मैं बिना आवेदन के समिति के बुलावे पर जुड़ गया था।
एक और प्रसंग स्मरण हो रहा है। उदयपुर में खादी संस्थाओं से जुड़े सम्मेलन में मेरा एक पर्चा, ‘खादी संस्थाएं : मानस बदलना होगा’ जब पढ़ा गया तो मठी गांधीवादी आग बबूला हो उठे थे। तब तत्कालीन समिति अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा ने मुझपर कठोर कार्रवाई का आश्वासन दिया था। संयोग से मेरी गैरहाजिरी में पर्चा पढ़ा गया था वर्ना खादी संस्थाओं के पदाधिकारी मेरी अहिंसक दैहिक समीक्षा कर ही देते। मेरी पेशी अनिल भाई के घर पर हुई तो उन्होंने कहा था कि तुम तो ऐसे ही जूत लगाते रहो। मेरी नौकरी यूं ही बची थी।
और अंत में उनका अपनेपन से जुड़ा एक मार्मिक प्रसंग। मुझे अपने राजनीतिक संपर्को के कारण परिवार का उलाहना सुनना पड़ता था । हमारे बांग्लादेश की जमींदारी के मुआवजे का मसला था। मैंने तत्कालीन मंत्री अरुण नेहरू तक से जुगाड़ लगवाया और असफल रहा था। तब रमेश जी ने मुझे बोर्डियाजी से गुहार लगाने की सलाह दी। उन्होंने संदर्भित कागज़ों के साथ दिल्ली आने को कहा। जाहिर है बोर्डिया जी की पहल पर पन्द्रह दिनों में ही राहत राशि मिल गई। मेरा परिवार उपकृत हुआ। मेरी साख भी बढ़ी।