क्या है राजस्थान- इसकी भाषा का इतिहास?

क्या है राजस्थान- इसकी भाषा का इतिहास?

Rajasthani भाषा के बारे में वो सब कुछ, जो आप जानना चाहते हैं

यहां की परम्परा और मेहमान नवाजी भुलाए नहीं भूल पाएंगे आप Culture-Language

 

जयपुर। (Culture-Language): भारत के खूबरसूरत राज्यों में सबसे खबूसूरत है राजस्थान प्रदेश। यहां के न सिर्फ पर्यटन स्थल बल्कि राजस्थान की संस्कृति, यहां के लोग, शहर, परम्पराएं, खान-पान, इतिहास और राजस्थानी भाषा से जो एक बार रूबरू हो जाता है वो फिर हमेशा “म्हारो राजस्थान” की “खम्मा घणी” और “पधारो म्हारे देश” वाली परम्परा को कभी नहीं भुला पाते।

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हमारे राजस्थान की संस्कृति का जिन्होंने अनुभव किया है वो बड़े ही भाग्यशाली हैं लेकिन जो इससे अंजान हैं उन्हें हम बताएंगे इस शाही प्रदेश  की सरल लेकिन आकर्षक संस्कृति, परम्परा और भाषा के बारे में कुछ ऐसी दिलचस्प बातें जिन्हें जानने के बाद यहां आने के लिए खुद-ब-खुद उनके कदम राजस्थान की ओर बढ़ जाएंगे….

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घूमर-कालबेलिया हैं यहां के आकर्षण

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Culture-Language राजस्थान की एक एक चीज देशी विदेशी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। राजे रजवाड़े, राजवंश, शाही हवेलियां, छतरियां, नृत्य, रंग बिरंगी पौशाक पूरी दुनिया के रंग अपने में समेटे हुए है। राजस्थानी भाषा, साहित्य और परम्परा में पूरे देश का सांस्कृतिक परिदृश्य झलकता है।

यहां की संस्कृति दुनियाभर में मशहूर है। राजस्थान की संस्कृति विभिन्न समुदायों और शासकों का योगदान है। जब भी राजस्थान का जिक्र आता है हमारी आखों के सामने रेगिस्तान, ऊंट की सवारी, घूमर-कालबेलिया नृत्य और रंग-बिरंगे पारम्परिक परिधान आते हैं।

राजस्थान की सुरीली-सभ्य और आदर सत्कार की भाषा के बारे में आइए आपको बताते हैं…

राजस्थानी भाषा एवं बोलियां

मरूधरा यानि राजस्थानी भाषा की उत्पति शौरसेनी गुर्जर अपभ्रंश से हुई है ऐसा माना जाता है। (Culture-Language) अगर हम इतिहास की बात करें तो उपभ्रंश के प्रमुखत: 3रूप नागर-ब्राचड़-उपनागर हैं और नागर के अपभ्रंश से सन् 1000 ई. के करीब राजस्थानी भाषा की उत्पति हुई ऐसा माना जाता है।

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ये भी कहा जाता है कि राजस्थानी एवं गुजराती का मिला-जुला रूप 16 वीं सदी के अंत तक चला, उसके बाद राजस्थानी स्वतंत्र भाषा के रूम में विकसित होने लगी और 17 वीं सदी के अंत तक आते-आते राजस्थानी पूर्णतः एक परिपूर्ण भाषा का रूप ले चुकी थी।

वर्तमान में राजस्थानी भाषा बोलने वाले लोगों की संख्या 7 करोड़ से भी अधिक है। न सिर्फ राजस्थान में बल्कि भारत के हर राज्य में राजस्थानी लोग बसे हैं यही नहीं एशिया और यूरोपीय देशों में भी राजस्थानियों बोलने वालों की तादाद काफी है। राजस्थानी में 72 बोलियां मानी जाती हैं। केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता भी दे दी है। हालांकि इसे अभी तक संवैधानिक मान्यता प्राप्त होना बाकी है।

(Culture-Language) इतिहासकारों और साहित्य विशेषज्ञों की मानें तो कवि कुशललाभ के ग्रंथ पिंगल शिरोमणि और अबुल फजल की आइने अकबरी में भी मारवाड़ी शब्द प्रयुक्त हुआ है।

 

राजस्थान की भाषा की चार उपशाखाएं 

पहली पश्चिमी राजस्थानी मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी और शेखावटी

दूसरी मध्य-पूर्वी राजस्थानी ढूंढाड़ी, हाड़ौती

तीसरी उत्तरी पूर्वी मेवाती, अहीरवाटी

और चौथी दक्षिणी पूर्वी मालवी, निमाड़ी भाषा राजस्थानी भाषा की चार उपशाखाएं मानी जा सकती हैं।

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प्रो. नरोत्तम स्वामी, हीरालाल माहेश्वरी, मोतीलाल मेनारिया, डॉ धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. श्याम सुन्दरदास ने राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण किया इस प्रकार से किया है। उन्होंने

डिंगल-पिंगल

ये राजस्थानी साहित्य की प्रमुख शैलियां है। डिंगल शब्द का प्रयोग राजस्थान के प्रसिद्ध कवि आसियों बांकीदास ने अपनी रचना कुकविबतीसी(1871) में किया है। पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है डिंगल भाषा। तो पिंगल भाषा में ब्रजभाषा एवं पूर्वी राजस्थान का साहित्यक रूप समाहित है। अधिकांश काव्य भाट जाति के कवियों द्वारा लिखित है। 

यूं तो राजस्थानी भाषा को का वर्गीकरण कई इतिहासकारों ने अपने-अपने ज्ञान के अनुरूप किया है लेकिन इनका अगर मिला जुला रूप देखा जाए तो वर्तमान में (Culture-Language) राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण सर्वाधिक  मोतीलाल मेनारिया का सटीक मालूम पड़ता है। मेनारिया ने राजस्थानी बोलियों को पांच वर्गों में इस प्रकार बांटा है:- मारवाड़ी, मातवी, ढूंढाड़ी, मेवाती और बागड़ी।

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ये हैं राजस्थान की प्रमुख बोलियां

मारवाड़ी: का प्राचीन नाम मरुभाषा है जो पश्चिमी राजस्थान की प्रमुख बोली है। ये प्रमुखतया जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, पाली, नागीर, जालौर और सिरोही जिलों में बोली जाती है। जबकि पूरी तरह से विशुद्ध मारवाड़ी केवल जोधपुर और उसके आसपास के क्षेत्र में ही बोली जाती है। #Marwadi की भी प्रमुख बोलियां हैं जैसे मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी, बीकानेरी, नागोरी और गोड़वाड़ी हैं।

मेवाड़ी: दरअसल उदयपुर एवं उसके आसपास के क्षेत्र को मेवाड़ कहा जाता है। इसलिए यहां की बोली मेवाड़ी कहलाती है। #Mewadi में लोक साहित्य का समृद भण्डार है। महाराणा कुंभा ने इसी भाषा में कुछ नाटक भी लिखे हैं।

वागड़ी: डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा के सम्मिलित शहरों का पारम्परिक नाम वागड़ था इसलिए यहां की भाषा #wagdi कहलायी, जिस पर गुजराती का प्रभाव अधिक है। मालवा की पहाड़ियों में बोली जाती है। भीली बोली इसकी सहायक बोली है।

ढाड़ी: उत्तरी जयपुर को छोड़कर शेष जयपुर, किशनगढ़, टोंक, नांवा तथा अजमेर-मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाने वाली भाषा ढाड़ी कहलाती है। संत दादू एवं उनके शिष्यों ने इसी भाषा में रचनाएं की

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तोरावटी: झुंझुनू जिले का दक्षिणी भाग, सीकर जिले का पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी भाग तथा जयपुर जिले के कुछ उत्तरी भाग को तोरावाटी कहने के कारण यहां की बोली तोरावाटी कहलाई।

हाड़ोती: हाड़ा राजपूतों के शासित होने के कारण कोटा, बूंदी, बारां एवं झालावाड़ का क्षेत्र #Hadoti कहलाया और यहां की बोली हाड़ोती, जो ढूंढाड़ी की ही एक उपबोती है। कवि सूर्यमत्त मिश्रण की रचनाएं इसी बोली में हैं।

मेवाती: अलवर एवं भतरपुर जिलों का क्षेत्र मेव जाति की बहुलता के कारण मेवात के नाम से जाना जाता है। अतः यहां की बोली #Mewati कहलाती है। यह अलवर की किशनगढ़, भरतपुर और पश्चिमोत्तर भाग तक तथा हरियाणा के गुड़गांव और यूपी के मथुरा जिले तक बोली जाती है।

वहीं अहीरवाटी अभीर जाति के क्षेत्र की बोली है इसके क्षेत्र को राठ कहा जाता है। यह हरियाणा तक बोली जाती है। जोधपुर का हम्मीर रासी महाकाव्य की रचना इसी बोली में हुई है। इसके साथ ही मालवी, नीमाड़ी, खेराड़ी, रांगड़ी, #Shekhawati, गोड़वाड़ी बोलियां भी हैं बीसलदेव रासो गोड़वाड़ी बोली की मुख्य रचना है।

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