
स्मृति और साधना का प्रतीक बना ‘गुरुधाम मंदिर’- जहां वास्तु बोलता है अध्यात्म की भाषा…!
कुछ यादें और कुछ इतिहास, वरिष्ठ पत्रकार सुधेंन्दु पटेल की कलम से…
आध्यात्मिक साधना का अद्वितीय उदाहरण, इतिहास के पन्नों में दर्ज ‘गुरुधाम’ की कहानी फिर प्रासंगिक
भूली बिसरी यादों के साथ इतिहास के पन्नों से खास आपके लिए
यह प्रेरणादायी स्टोरी 11 July 1976 धर्मयुग में प्रकाशित हो चुकी है।
(सुधेंदु पटेल, योगेंद्र नारायण) वरिष्ठ पत्रकार
जयपुर, (dusrikhabar.com). काशी विश्वविद्यालय से लौटते हुए अकसर सांझ के झीने अंधियारे में ऊंचे खड़े दरख्तों की छाया तले, उस नौबत- खाने की ओर देख कर मन व्यथित होता रहा है। अब वहां कुछ भी नहीं रहा. सिर्फ भूरी-सूखी मिट्टी के ऊंचे-नीचे टीलों और ढूहों सरीखे दीखते कंकालनुमा दीवारों की गिरी-अधगिरी कतारों के सिवाय, जिन पर सूखी घास उग आयी है. सिर्फ टंगा रहा गया है, जबान पर बस एक नाम – गुरुधाम।

Senior Journalist Sudhendu Patel…
समूचे हिदुस्तान में आध्यात्मिक साधना को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करनेवाले मंदिरों के मात्र चार उदाहरण मिलते हैं। एक है राजा नृसिंह देव द्वारा बांसवेदिया का हंसेश्वरी मंदिर, दूसरा चिदंबरम के निकट भदलूर नामक स्थान में रामलिंग स्वामी द्वारा प्रतिष्ठित सत्य- ज्ञान सभा नामक मंदिर, तीसरा झूँसी स्थित हंस तीर्थ मंदिर और चौथा गुरुधाम मंदिर। इनमें गुरुधाम सर्वोपरि है, इसका निर्माण प्रख्यात समाजसेवी जयनारायण घोषाल ने करवाया था।
इस मंदिर में भारतीय आध्यात्मिक साधना के रूप को पूर्णतया व्यक्त करने की चेष्टा की गयी है। मंदिर का ऊर्ध्वमुखी गठन मानव मात्र को ऊर्ध्वमुखी कर देता है। इसके अलावा गुरुधाम केवल विग्रह मात्र का आधार नहीं। गुरु के आश्रय द्वारा ही जिस तत्व की उपलब्धि होती है तथा गुरु लाभ करने के जो भिन्न-भिन्न साधना पथ हैं, इस अष्टकोणाकार मंदिर के मूल में वे सारे तत्व विद्यमान हैं।
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गुरुधाम के प्रवेश द्वार पर नौबतखाने का निर्माण प्रथानुसरण के लिए नहीं हुआ है। नौबतखाने से प्रवेश करते ही दाहिनी ओर एक नारायण कुंड है, गुरु मंदिर की दूसरी मंजिल में राधा-कृष्ण की मूर्ति है। कुंड की स्थिति नौबतखाने से भी खराब है, कुंड को पार कर आगे बढ़ने पर अंतः गृह पड़ता है, जिसके बीच में गुरु मंदिर है। अष्टकोणी प्राचीर से अंतः गृह घिरा है।
आठ दिशाओं में आठ तरह के द्वार बने हैं, प्रत्येक द्वार के अलग-अलग नाम हैं, ये द्वार भिन्न-भिन्न दिशाओं के प्रतीक है। उन्हें विभिन्न साधना द्वार का प्रतीक भी कहा जा सकता है। मुख्य द्वार काशी द्वार है, इस प्रकार काशी द्वार प्रथम एवं गुरु द्वार अंतिम द्वार है। काशी द्वार के ऊपर दो सिंह मूर्तियां बनी है। इस द्वार से प्रवेश करने पर गुरु की एवं महावीर की मूर्ति दिखलाई पड़ती है, परंतु एक लंबे अरसे से सभी द्वार बंद हैं, सिर्फ गुरु द्वार ही खुला है।

कृतियों को सहेजना और उनके संरक्षण की जरूरत…
विडंबना है कि अपने ढंग की इस कृति की रक्षा नहीं हो पा रही है और नये मंदिरों का निर्माण जारी है। इस मंदिर की सुरक्षा के लिए महामहोपाध्याय (स्व.) पं. गोपीनाथ कविराज ने लिखा है- ‘समूचे भारतवर्ष में ऐसा भाव-प्रतीक मंदिर कहीं नहीं है, यह मात्र काशी की धरोहर नहीं है, अपितु यह हर भारतवासियों के लिए श्रद्धा और गर्व का विषय है।
डेढ़ वर्ष पूर्व गुरु और अरुंधुती की मूर्ति चोरी हो गई थी। बाद में गुरु मूर्ति तो बरामद हुई, लेकिन गुरु का हाथ कटा था और अरुंधुती कहां रहीं, अब कोई नहीं जानता।
गुरु पूर्णिमा के इस अवसर पर यह स्मरण न केवल श्रद्धा है, बल्कि एक आह्वान भी — कि आध्यात्मिक भारत के चिन्ह मिटने से पहले उन्हें सहेज लिया जाए।
