विजय श्रीवास्तव
जयपुर। कहते हैं अपनी करनी का फल यहीं भुगतना पड़ता है, इस कहावत में 100प्रतिशत सच्चाई है। यह भी कहा जाता है कि कुदरत करनी का हिसाब यहीं ले लेती है। शायद यही कारण है कि धरती पर मानव की ज्यादतियों का कुदरत हमसे गिन-गिन कर बदला ले रही है। दुनियाभर में प्राकृतिक संसाधनों का जिस तरह से हमने दुरूपयोग किया है उसी के कारण शांत और निश्छल प्रकृति जो कभी शांति का स्वरूप थी अब अशांत हो चुकी है और इस सबके लिए कहीं न कहीं हम लोग ही जिम्मेदार हैं। केदारनाथ त्रासदी और उत्तराखंड के चमोली में जल प्रलय तो इसकी बानगी मात्र हैं। अभी तो ऐसे कई और कुदरत के कहर का हमें या हमारी आने वाली पीढ़ियों को सामना करना पड़ेगा। जिस तरह से विकास के नाम पर दुनियाभर के अमीर देशों ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है उसका बहुत सा परिणाम तो अभी भुगतना बाकी है।
दुनिया के लिए चुनौती बन चुका पर्यावरण का असंतुलन यानि ग्लोबल वार्मिंग का खतरा अब खुलकर अपना रोद्र रूप दिखा रहा है। तेजी से पिघलते दुनिया के हिमनद या ग्लेशियर इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। पृथ्वी का तापमान बढ़ने के साथ ही विश्व में ग्लेशियरों के पिघलने का सिलसिला अब और तेज हो गया है, जिसका तेजी से असर भारत पर देखने को मिल रहा है। 2013 में हुई केदारनाथ त्रासदी इसी के परिणामस्वरूप हुई। यूं तो धरती पर पीने के स्वच्छ पानी का सबसे बड़ा स्त्रोत ग्लेशियर को माना जाता है। जो समयानुसार पिघल का हमें पीने का पानी पर्याप्त मात्रा में प्रदान करते हैं लेकिन मौजूदा परिस्थिति में ग्लेशियरों के पिघलने की बढ़ती तेज गति धरती पर जीवन के लिए बड़ी समस्या पैदा कर सकती है। जिस गति से धरती का तापमान अगले 100 सालों में बढ़ने का का वैज्ञानिकों द्वारा अनुमान लगाया जा रहा है उसके परिणामस्वरूप हिमनदों के पिघलने की गति और तेज होने की आशंका नजर आने लगी है। वहीं 21वीं सदी के अंत तक धरती का तापमान 1 से 5.8 डिग्री तक बढ़ने की आशंका भी जताई जा रही है।
एक अनुमान के अनुसार अगर दुनियाभर के तापमान में 4प्रतिशत की भी वृद्धि होती है तो धरती से ग्लेशियर गायब हो जाएंगे। यदि ऐसा हुआ तो या तो धरती पानी-पानी हो जाएगी या फिर धरती पर अकाल पड़ जाएगा और दोनों ही सूरतों में मानव जाति का विनाश तय है। जानकारों की मानें तो हिमालय के ग्लेशियरों से एशिया की सात बड़ी नदियां निकलती हैं। इनमें गंगा, ब्रह्मपुत्र,सालवीन, सिंधु, यांग्सी, हुवांग और मेकांग नदी प्रमुख हैं। इन नदियों से एक वर्ष में दो अरब लोगों को पीने के पानी की पूर्ति हो जाती है।
हाल ही में उत्तराखंड में हुई हिमस्खलन की घटना और इससे पहले केदारनाथ त्रासदी से भारत में प्रकृति ने अपना विनाशकारी रूप दिखाया है। विशेषज्ञों की मानें तो बढ़ता तापमान ही ग्लेशियरों के पिघलने का कारण हैं जिसके कारण झीलों का जलस्तर बढ़ता है और सहनशीलता से अधिक भार बढ़ने के कारण ये झीलें टूटकर या फैलकर आसपास के इलाकें में विनाश का कारण बन जाती हैं। भारत के अकेले उत्तराखंड में 968ग्लेशियरों के होने की बात वैज्ञानिकों द्वारा बताई गई है। इनमें करीब 1253 झीलें बनी हैं। इनमें से कई झीलों की स्थिति खतरनाक हो सकती है। यह झीलें ग्लेशियर के सामने बनी हैं, जिनके फटने की प्रबल आशंका बनी हुई है।
प्रकृति से जुड़े वैज्ञानिकों के अनुसार केदारनाथ त्रासदी के बाद जो नया रास्ता बनाया गया है वो भी खतरे की आहट लिए हुए है। यानि इस मार्ग पर अभी भी खतरा है। उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र से मिली जानकारी की अनुसार इस नए रास्ते में सात बड़े हिमस्खल जोन हैं जो कभी भी प्रलय का कारण बन सकते हैं। केदारनाथ आपदा के बाद जो नया मार्ग बनाया गया है, वह भी खतरे की जद में है। उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र की मानें तो इस मार्ग पर सात बड़े एवलांच (हिमस्खल) जोन हैं। यहां जब-तब एवलांच आते रहते हैं। उत्तराखंड के चमौली में प्रकृति ने जो अपना कहर बरपाया है इससे अभी तक 60 लोगों के काल कवलित होने की खबर आ रही है वहीं 200 लोगों के अभी तक लापता होने की खबर है जिनकी तलाश में सरकारी मशीनरी जुटी हुई है।
बहरहाल एक बात तो तय है कि प्रकृति का संतुलन मानव ने बिगाड़ा है तो अब मानव से ही प्रकृति इसकी भरपाई भी करेगी। लेकिन विकास के नाम पर हुई कुदरत से छेड़छाड़ ने जहां हमें साधन सम्पन्न बना दिया है वहीं धरती के विनाश का कारण भी ये संसाधन ही होंगे ऐसा विशेषज्ञों और समझदारों का मानना भी है।