विजय श्रीवास्तव
जयपुर। भारत में प्राचीनकाल से ही लोगों में अपने उत्तराधिकारी की चाह रही है और उसके लिए बेटे के जन्म को गर्व का विषय माना जाता रहा है। लेकिन धीरे धीरे समय बदलता चला गया और आज की स्थिति को देखें तो ऐसा नहीं लगता कि बेटा ही पिता का उत्तराधिकारी होगा। जिन सभ्य और समझदार परिवारों में बेटा नहीं हैं यानि जिन परिवारों में बेटे का जन्म नहीं हुआ लेकिन बेटी जरूर है तो ऐसे परिवारों ने बेटी को बराबरी का दर्जा देकर उसकी भी अच्छी परवरिश कर उसे समाज में बेटे के बराबर का दर्जा दिया है। लेकिन फिर भी कहीं न कहीं अभी भी भारतीयों के मन में बेटे की चाह पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है। शायद यही कारण है कि भारत में बेटे की चाह में भारतीय दो से अधिक बच्चे पैदा कर रहे हैं।
बेटे की चाह में दो से अधिक बच्चों के जन्म के कारण भारत में लिंगानुपात का गणित बिगड़ता जा रहा है। ऐसा हमारा नहीं बल्कि शोधकर्ताओं का मानना है। उनके अनुसार जमीन के उत्तराधिकार की वजह से बेटे की चाहत लिंगानुपात को बिगाड़ रही है।
शोध में हुआ बेटे की चाहत का खुलासा
हाल ही में प्रकाशित नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में इस बात का खुलासा भी हुआ है कि बेटे की चाहत में भारतीय दूसरे और तीसरे बच्चे को जन्म दे रहे हैं, जिससे भारत में लिंगानुपात असंतुलित हो रहा है। इस सर्वे के चौथे चरण से भारतीयों को सोचने पर मजबूर कर देने वाला खुलासा हुआ है कि दूसरे और तीसरे बच्चे के समय एसआरबी (सेक्स रेशिया एट बर्थ) बिगड़ रहा है। इस सर्वे के अनुसार 2015-16 के आंकड़ों की बात करें तो 5.53 लाख बच्चों के जन्म के विश्लेषण से यह खुलासा हुआ है कि एसआरबी दूसरे और तीसरे बच्चे से बिगड़ा है क्योंकि पहले बच्चे के समय प्रति 100बेटियों पर 107.5 बेटे जबकि तीसरे बच्चे के जन्म पर प्रति 100बेटियों पर 112.3 बेटों के जन्म का आंकड़ा पहुंच गया है। भारत के इंटरनेशनल इंस्टीटयूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज और अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया सैन डिएगो के सेंटर ऑन जेंडर इक्विलिटी एंड हैल्थ के शोधकर्ताओं ने अपने शोध में इस बात का खुलासा किया है जो भारतीयों के लिए चिंताजनक है। क्योंकि ऐसा सामान्य परिस्थितियों में लिंगानुपात प्रति 100बेटियों पर 103-06 बेटों के जन्म का होता है। साथ ही विश्व के अनुमानित औसत की बात करें तो यह औसत 105 ही है। सर्वे में जारी डाटा के मुताबिक, जब कम्यूनिटी लेवल फर्टिलिटी प्रति महिला 2.8 बच्चों से ज्यादा थी तो एसआरबी सामान्य रेंज यानि यानि 103.7 में था। शोध की टीम में शामिल एक प्रोफेसर ने बताया कि शोध से यह खुलासा हुआ है कि छोटे और अमीर परिवार लिंग का चुनाव करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। क्योंकि इसके पीछे बेटे की चाहत एक मुख्य घटक है। प्रोफेसर का कहना है कि भारत में पहले बच्चे के जन्म के समय एसआरबी अब भी सामान्य सीमा से अधिक है और अधिक बच्चों के जन्म के साथ ये अधिक बिगड़ सकता है।
जानकारों और विषय विशेषज्ञों की मानें तो राजस्थान से इस सन्दर्भ में एक सुखद खबर यह है कि करीब पांच वर्ष पहले हुए सर्वे के अनुसार राजस्थान में एक सुखद लिंगानुपात 10% बढ़ा है, जिसके चलते राजस्थान में 2015-16 में 1000 बेटों पर 941 बेटियां थीं। जबकि अगर 2011 की बात करें तो 1000 बेटों पर प्रदेश में बेटियों की संख्या 847 ही थी, लेकिन 2015 में पीसीपीएनडीटी के एक अधिकारी के अनुसार राजस्थान के सीकर जिले की अगर बात करें तो यह आंकड़ा बेटों की संख्या से भी अधिक यानि 1000 बेटों के जन्म पर 1014 बेटियों के सुखद आंकड़े पर पहुंच गया था। स्वास्थ्य विभाग के पीसीटीएस के आंकड़ों की मानें तो राज्य में जन्म के समय बाल लिंगानुपात में अब हर साल सुधार हो रहा है जो प्रदेश के लोगों की सकारात्मक और अच्छी सोच को दर्शाता है।
कैसे आया प्रदेश में ये बदलाव?
प्रदेश में घटती लड़कियों की संख्या पर राज्य सरकार की चिंता कड़ाई के कारण प्रदेश में इस तरह के सुखद नतीजों को लाने के प्रयास से ये सब संभव हो पाया। इसके लिए प्रदेश सरकार ने सख्ती से कई अभियान चलाए जिनमें ये अभियान प्रमुख थे :-
1. कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अभियान
2. सामाजिक सोच में बदलाव को लेकर अभियान
3. बेटी के जन्म पर महिला श्रमिकों के लिए सहायता राशि
4. पीसीपीएनडीटी एक्ट में बरती गई सख्ती
5. सोनोग्राफी मशीनों में एक्टिव ट्रेकर का इस्तेमाल
6. सोनोग्राफी का डाटा रिपोर्टिंग ऑनलाइन किया जाना
7. सोनोग्राफी सेंटरों के खिलाफ हुई कार्रवाई
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और चिकित्सा मंत्री डाक्टर रघु शर्मा के प्रयासों से चिकित्सा विभाग ने वाकई बच्चियों और महिलाओं को सुरक्षित करने तथा आगे बढ़ाने की जो योजनाएं चलाई हैं वो प्रदेश की महिलाओं के लिए काफी मददगार साबित हुई हैं। इनसे न सिर्फ बच्चियां सुरक्षित महसूस कर रही हैं बल्कि शिशु लिंगानुपात में भी बेटों के मुकाबले बेटियों की स्थिति में सुधार हुआ है।
महिला अधिकारिता एवम बाल विकास विभाग के अनुसार बच्चियों के लिंगानुपात में करीब 2फीसदी की बढ़ोतरी देखी जा रही है और 2021 में नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे के बाद ही इसके सही सही आंकड़े मिल पाएंगे।
महिलाओं के लिए हालांकि अभी कई प्रोग्राम और प्रयास विभाग द्वारा किए जा रहे हैं ताकि महिलाओं को उनके बारे में किसी भी योजना की जानकारी एक ही प्लेटफार्म पर मिल सके, उन्हें अपने अधिकारों के लिए यहां वहां नहीं भटकना पड़े। महिलाओं के लिए एक तरह से एक ऐसा प्लेटफार्म बनाने पर काम हो रहा है जहां महिलाओं के लिए कौनसा विभाग, क्या काम कर रहा है? उसकी जानकारी एक ही जगह मिल सके।
इन जिलों में बालिकाओं का बढ़ा आंकड़ा
आंकड़ों के मुताबिक, प्रदेश में हर साल करीब 17 लाख प्रसव होते हैं और इनमें से 14 लाख 50 हजार अस्पताल या आंगनबाड़ी केंद्रों में होते हैं। बांसवाड़ा जिले में वर्ष 2018-19 के दौरान हुए शिशु जन्म में 1000 बालकों की तुलना में 1003 बालिकाओं ने जन्म लिया। वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान बाल लिंगानुपात चूरू में 986, बाड़मेर में 982, हनुमानगढ़ में 977 और जालौर में 974 रहा. ताजा जानकारी अभी तक कहीं से प्राप्त नहीं हो रही है लेकिन वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान वर्ष 2017-18 की तुलना में सर्वाधिक वृद्धि बाड़मेर जिले में हुई है। बाड़मेर में लिंगानुपात 954 से बढ़कर 982 हो गया। इसी प्रकार जालौर में यह 950 से 974, भीलवाड़ा में 933 से बढ़कर 951, प्रतापगढ़ में 921 से 938 व जोधपुर में 947 से बढ़कर 963 हो गया।
बहरहाल नई जानकारी अभी तक तैयार नहीं है लेकिन इस पूरे सिनेरियो से यह तो साफ हो जाता है कि प्रदेश के लोगों के दिमाग में अब लड़के और लड़कियों में ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। लोग यहां खुले दिमाग से सोचने लगे हैं साथ ही बच्चियों को अब बोझ की जगह एक जिम्मेदारी की तरह लेने लगे हैं। चाहे गहलोत सरकार हो या वसुंधरा सरकार, इन्ही के द्वारा किए गए प्रयासों का ही ये नतीजा है कि लोगों की सोच में बदलाव आया है और प्रदेश में लड़कियों को भी लड़कों के समान बराबरी का दर्जा मिलने लगा है।