अरावली, खनन और राजनीति: राजस्थान में अरावली बनाम गहलोत विमर्श

अरावली, खनन और राजनीति: राजस्थान में अरावली बनाम गहलोत विमर्श

राजस्थान की राजनीति में फिर गरमाया ‘अरावली बनाम गहलोत’ विमर्श

अरावली की राजनीति: आरोपों के पहाड़, नैतिकता की दरार

पर्यावरण की दुहाई देने वाले नेता जब अपने सत्ता काल के फैसलों पर चुप हों, तो सवाल सरकार से नहीं, राजनीति की नीयत से पूछे जाने चाहिए।

 विजय श्रीवास्तव,

राजस्थान की राजनीति में अरावली पर्वतमाला एक बार फिर सिर्फ पर्यावरण का नहीं, बल्कि राजनीतिक नैतिकता और सत्ता के दुरुपयोग का बड़ा मुद्दा बन गई है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जहां मौजूदा भजनलाल सरकार पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अनदेखी कर नए खनन पट्टे जारी करने का आरोप लगा रहे हैं, वहीं केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने पलटवार करते हुए गहलोत के मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान परिवार और रिश्तेदारों को खनन का गैर-वाजिब लाभ दिए जाने का पुराना मामला फिर से उछाल दिया है।

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यह टकराव केवल वर्तमान बनाम अतीत का नहीं, बल्कि इस सवाल का भी है कि पर्यावरण संरक्षण की राजनीति करने वाले नेताओं का अपना रिकॉर्ड कितना साफ रहा है?

गहलोत पर आरोप: सत्ता में रहते रिश्तेदारों को खनन का फायदा

केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा सांसद भूपेंद्र यादव ने हाल ही में 2013 के एक मीडिया खुलासे का हवाला देते हुए आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री रहते अशोक गहलोत ने जोधपुर के ओसियां क्षेत्र में अपने 16 रिश्तेदारों को नियमों के खिलाफ खनन पट्टे आवंटित किए। उस समय यह मामला इतना गंभीर हो गया था कि राजस्थान विधानसभा में भारी हंगामा हुआ, बजट भाषण तक बाधित हुआ और आखिरकार विशेष जांच समिति का गठन करना पड़ा।

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राजनीतिक दबाव और जांच के बाद गहलोत सरकार को न केवल सभी खदानों के आवंटन रद्द करने पड़े, बल्कि राज्य में खनन नीति को दोबारा लागू करना पड़ा। यही नहीं, मामला दिल्ली तक पहुंचा और कांग्रेस नेतृत्व को भी सफाई देनी पड़ी। बाद में सोनिया गांधी के निर्देश पर सभी कांग्रेस शासित राज्यों में विवेकाधिकार कोटे से खनन आवंटन का अधिकार ही समाप्त कर दिया गया।

भूपेंद्र यादव का तर्क साफ है: “जो लोग आज पर्यावरण और सुप्रीम कोर्ट की दुहाई दे रहे हैं, उन्होंने सत्ता में रहते अपने परिवार को खनन का सीधा लाभ दिया था।”

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अरावली पर गहलोत का हमला: पर्यावरण की चिंता या राजनीतिक पलटवार?

अशोक गहलोत मौजूदा सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि अरावली क्षेत्र में सुप्रीम कोर्ट की अंतरिम रोक के बावजूद 126 नए खनन पट्टे जारी किए गए। उनका दावा है कि तकनीकी खामियों का सहारा लेकर अरावली की पहाड़ियों को परिभाषा से बाहर दिखाया जा रहा है, ताकि खनन को वैध ठहराया जा सके। गहलोत का कहना है कि अरावली सिर्फ पहाड़ नहीं, बल्कि रेगिस्तान के विस्तार को रोकने वाली प्राकृतिक ढाल है और इसके साथ छेड़छाड़ आने वाली पीढ़ियों के भविष्य से खिलवाड़ है।

लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या गहलोत की यह पर्यावरणीय चिंता वास्तविक है, या फिर विपक्ष में बैठकर सत्ता पर दबाव बनाने की रणनीति?

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राजनीति में ‘नैतिकता’ की जंग, जनता किसे माने?

इस पूरे विवाद में सबसे बड़ा सवाल यह नहीं है कि कौन आरोप लगा रहा है, बल्कि यह है कि कौन जवाब देने की स्थिति में है। भूपेंद्र यादव द्वारा उठाया गया पुराना खनन मामला गहलोत के नैतिक आधार को कमजोर करता है, जबकि गहलोत के ताजा आरोप भजनलाल सरकार को कानूनी कटघरे में खड़ा करते हैं।

असल में यह लड़ाई दो सरकारों की नहीं, बल्कि राजस्थान में खनन नीति, पर्यावरण संरक्षण और सत्ता के दुरुपयोग की लंबी परंपरा की है। अरावली इस लड़ाई का केंद्र जरूर है, लेकिन दांव पर राजनीतिक विश्वसनीयता लगी हुई है।

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अरावली से आगे भी सवाल बाकी

अरावली विवाद अब सिर्फ पर्यावरण संरक्षण तक सीमित नहीं रहा। यह मुद्दा इस बात की कसौटी बन गया है कि राजस्थान की राजनीति में सत्ता में रहते फैसले कैसे लिए जाते हैं और विपक्ष में आकर वही फैसले कैसे सवाल बन जाते हैं। बहरहाल आने वाले समय में यह विवाद अदालतों में जाए या चुनावी मंचों पर, लेकिन इतना तय है कि अरावली के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं के अपने अतीत की फाइलें भी बार-बार खुलती रहेंगी

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